मन यू ही भागता

मन यू ही भागता फिर रहा है कही, फिर रहा है कही, इस मन को कैसे संभालु , बस इस मन की व्यथा है , मन यू ही भागता रहा,
खुशियों की तलाश में थका हुआ।
कहीं न रुकता, न ठहरता,
हर समय खोजता रहा।

जीवन की दौड़ में पड़ा हुआ,
खुद को भुलाता जा रहा था।
सफलता की तलाश में जुटा हुआ,
मन खुशियों के सागर में बहता रहा था।

पर वो नहीं जानता था,
कि जो उसे खुश करता था,
वो उसी के अंदर ही मौजूद था।

बस वो एक दिन देख लिया,
खुशियों का सागर अपने अंदर ही था।
जो उसने ढूंढा था बाहर,
वो उसी के अंदर छुपा हुआ था।

अब वहीं बैठकर, खुशियों के साथ,
वहीं वो खुश होता जा रहा है।
मन नहीं भागता अब,
खुशियों का सागर अपने अंदर ही पाता है।

मन ने बुन रखे है इतने जाल जिसमे खुद ही बेचारा मन फंस रहा है, इस जाल से बाहर नहीं आ पाता, कोशिश बहुत करता है लेकिन यह बेचारा अपने ही जाल में खुद ही फँसता जाता।

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