मेरी नींद पर कभी

मेरी नींद पर कभी मेरा हक न था, ये दिल रोज़ रोया,
ज़िंदगी के रंग उजाले गए, नींद की रातों में खोया।

आँखों की नींद चुराने को रवाना कर दिया,
चाँदनी रातों में सपनों को गले लगाने को रवाना कर दिया।

जब रात की घनी छांव में सोने का सवाल नहीं,
ज़िंदगी के ख्वाबों को लूटने का हक़ नहीं।

अधूरी रातों में चाँद को देखते रह गये,
नींद के सपने धुंधले से रह गये।

लेकिन जब हक़ नहीं मेरी नींद का कोई,
तो शायरी के रंग में खुद को ढलाने को रवाना कर दिया।

मेरी नींद पर कभी
मेरी नींद

मेरी नींद पर कभी भी हक मेरा ना था
पहले तुम थी इसकी मालिक फिर तुम्हारी यादें बन गई…

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