उलझन में है दिल मेरा, अटका हुआ इस अँधेरे में,
कहीं समझ नहीं आता क्या सही है, क्या गलत में।
ये उलझन की घनी धुंध ने मेरी राहें बाँध ली हैं,
एक आस बना कर जीता हूँ, कि शायद बदल जाएं वही।
मैं तो जानता हूँ अब आगे बढ़ना होगा जरूर,
पर राह तो बेख़बर है, जिसे मैंने सोचा था वही नहीं है।
फिर भी ना उदासी है दिल में, ना हार का अभाव है,
कोशिश करता हूँ हर उलझन से अटके हुए समझौते कर लूँ।
जब भी उठती है उलझन की लहर, तब भी खड़ा रहता हूँ मैं,
उस समय भी ढूँढता हूँ मैं अपने अंतर की शांति के लिए।
उलझन की इस घनी धुंध में, बस यहीं हूँ मैं अकेला,
पर उठती हैं मुझमें नयी उमंग, कि एक दिन निकलूँ मैं जीता-जगता हुआ।
उलझन में है दिल मेरा, अटका हुआ इस अँधेरे में