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सफर रोज मेट्रो का

सफर रोज मेट्रो का कुछ इस तरह से चल रहा है, जैसे जिंदगी का कुछ हिस्सा एक दूसरे हिस्से को मिल रहा है।

यात्रा रोज़ की, मेट्रो की रेलों में,
जीवन का टुकड़ा चल रहा है अधिकारों में।
यात्रा का हर स्थान, हर स्टेशन नया,
कुछ दूसरे हिस्से को सलाम कर जाता है।

जैसे सफर चलता है, जीवन भी चलता है,
हर किसी को अपना रास्ता ढूंढ़ना है।
मिलते हैं रास्ते, ना जाने कहाँ कहाँ,
दूसरे हिस्से को पाने का सब्र करता है।

धूप-छाँव, गाड़ी में आवाज़ों की बौछार,
जीवन की कठिनाइयों का कर रहा सामना यहां।
एक दूसरे को संभालते, संगठित ढंग से,
जिंदगी भी सीख रही है सहनशीलता यहां।

मेट्रो की रेलें, जीवन का प्रतीक हैं,
जोड़ती हैं अलग-अलग लोगों की भीड़ को।
प्यार और सदभावना से भरी यात्रा है यह,
जहां दूसरे हिस्से को जीने का मौका मिलता है।

सफर रोज मेट्रो का, एक बदलाव है,
जिंदगी का आदान-प्रदान यहां दिखाई देता है।
एक दूसरे से जुड़े रहने की शिक्षा देता,
ओर जीवन को सही दिशा में ले जाता है।

चलती रहे मेट्रो की यात्रा, बढ़ती रहे रेलें,
जीने का संघर्ष रहे सबके पास अवसर।
जब सफर के अंत में हम एक दूसरे को मिलें,
जिंदगी का सफर एक संगठित हिस्सा बन जाए संगीत।

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दो दोस्त मेट्रो में

अक्सर ये देखा जाता है की कुछ मेट्रो में या कही भी इस तरह से मिलते है जैसे की वो एक लंबे अरसे बाद मिल रहे हो लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है वो मिलते ही रहते है बीच बीच में एस उन दृश्यों से लगता है , लेकिन ये लोग कुछ इस तरह से दर्शाते है जैसे की आज मिले है कभी मिले नहीं थे ओर फिर शायद कभी मिलन नहीं होगा, वो ढेर सारी इनके बीच बाते अधूरी सी पड़ी है जो ये आज पूरी कर लेंगे , जरा देखिए जब दो दोस्त मेट्रो में मिलते है , दो दोस्त मेट्रो में मिलते है ओर फिर बस सन्नटा गहरा अब उनके बीच में कोई संवाद नहीं होता बस जद्दोजहत थी तो साथ बैठने तक की ओर कुछ नहीं

दो दोस्त मेट्रो में मिलते है अबे कहा था, इतनी देर से फोन कर रहा हूँ, फोन नहीं उठा रहा है तू बे

अरे कही नहीं माँ से बात रहा था यार  

वह मित्र अब उसके बगल में बैठ जाता है,  

क्या हाल चाल है तेरे , क्या चल रहा है?

हा ठीक,  आज लेट हो गया है

उत्तर : हा यार

उसके बाद घनघोर सन्नाटा उन दोनों के बीच में बस बाते खत्म हुई यही 2-3 लाइन थी जो आपस में उन्होंने बोली थी, मिले तो ऐसे थे नया जाने कितनी ही बाते अधूरी थी, जो उन दोनों दोस्तों को करनी पूरी थी अब बीच में या गई फोन की दीवार ओर लग गए अपने अपने फोन में।

आजकल लोग एक साथ बैठना तो चाहते है, लेकिन उनके पास बात करने को कुछ नहीं होती बस बैठना चाहते है, जो बैठा हो वह पर उसको सरकाना जो बेचारा आराम से बैठा है, उससे सीट साफ करवा देते है आप घर में कुछ बात नहीं करते है, आपस में लेकिन बैठना बगल में ही है, घर में आप शक्ल भी नहीं देखते है फोन की शक्ल में व्यस्त होते है, लेकिन साथ बैठना है बहुत ही समझ से बाहर है, यह बात मेरे तो दूसरे को इधर उधर सरका कर खुद बैठ जाना, पता नहीं कहा की अकलमंदी है यह………….

क्या वो गुम हो जाएगा यदि आपके साथ नहीं बैठा तो, छोटा बच्चा है क्या आपका मित्र, भी, या जो भी साथ है।

क्या उसके साथ बहुत सारी बाते अभी करोगे? यदि वो साथ नहीं बैठा तो क्या दिक्कत हो रही है, यह बात समझ नहीं आती।  

की आप 3 लोग मेट्रो में चढ़ते है ओर आपको एक साथ सीट नहीं मिलती तो आप दूसरे लोगों को adjust करवाने लग जाते हो, की हम आए है हम इधर एक साथ बैठेंगे आप हमारी वजह से इधर उधर हो जाओ।

क्या आप उधर बैठ सकते? क्या आप उधर चले जाएंगे? बस यही रहता है, पता नहीं कितना प्रेम उस टाइम इनका झलकता है, लेकिन वो लोग कुछ बात नहीं करते बस अपने अपने मोबाईल में लग जाते है।  

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