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सुखद आनंद

मुस्कुराहट का ही तो एक नाम है जिंदगी , ये जिंदगी रोने के लिए नही है इसे मुस्कुराना सिखाओ ओर खो जाओ उन सभी लम्हो में जो तुम्हे सुखद आनंद देते है।

सुखद आनंद

क्या है जिंदगी

क्या है जिंदगी ? यह एक बहुत बड़ा विषय है और जिंदगी को आसानी से समझ पाया है। जिसने समझने की कोशिश की है वो खुद ही उलझा हुआ नजर आया है।

जीवन का पहला पड़ाव है जिंदगी उस पहले पड़ाव से मिलों तक का लंबा सफर तय कारणए का नाम है जिंदगी
क्या है जिंदगी

यह शब्द

इन शब्दों का अंदाज अलग है
क्योंकि
शब्दों में भेद भी बहुत अलग अलग है
पता नहीं
यह शब्द कभी समझ नहीं आते
मनो
यह शब्द कही है भाग जाते
पकड़
कैसे पाउ मैं इन शब्दों को
न जाने
कैसे अदृश्य हो जाते है ये तो?

जाग्रत कौन है?

वास्तव में सुख से कौन सोता है? जाग्रत कौन है?

दो प्रश्न हैं और उनका उत्तर है जिनकी संक्षिप्त व्याख्या दो भागो में करते हैं .

पहले प्रश्न पर चलते हैं, दोनों का उत्तर पढ़ना आवश्यक है इस पूरी स्थिति को समझने के लिए.

वास्तव में कौन है जो समाधि निष्ठ हो कर सुख से सोता है? 

वही व्यक्ति अथवा सत्ता जो परमात्मा के स्वरुप में हमारे ही अंतकरण में स्थित या स्थापित है!  परमात्मा का एक “स्वरुप” ही हम हैं और वह ही सब करता है. “हम” कौन हैं फिर? “मै  जो जाग्रत अवस्था में सोचता है, करता है, जिसे भूख प्यास लगती है हमारा अहंकार है जो हमें इस शरीर से जोड़कर उसी को “मै – हम”  बना देता है, पर आत्मिक ज्ञान होने पर जब सब दीखता है तो ज्ञात होता है के जिस सत्ता को हम “मै ” समझते थे, वह तो केवल एक हाड मांस का एक शरीर है जिसे चलाने वाला वही अंतकरण में स्थापित देव मूर्त परम आत्मा है।

जिसे हम अनदेखा कर, इस शरीर व् मायावी संसार के चक्कर में, पाप पर पाप करते चले जाते हैं. याद रखे के इसीलिए हम सुख से नहीं सो पाते, क्यूंकि हमने पापो का इतना बोझ पीठ पर लाद रखा है के हम दुःख में ही रहते हैं पर जब हम उस अंतर स्थित स्थापित सत्ता से जुड़ जाते हैं और इस संसार के मायावी रूप के लबादे को उतार कर, हलके फुल्के हो जाते हैं।

जाग्रत कौन है? यदि हम यह जान पाए तभी हम अपने भीतर के सभी कार्यों होते देख पाएंगे

अपने पाप कर्मो पर दृष्टि डालते हैं तब हम जिस स्थिति व् अवस्था  में होंगे वहां न कोई चिंता होगी न किसी पाप कर्म का बोझ होगा न कभी न पूरी होने वाली इच्छाओ, स्वरूपी राक्षसो का भय होगा, तब हम अपने उस स्वरुप में सम्मलित होकर एक ही रूप में होंगे और वह ही हमारा वास्तविक रूप है, ये जो दीखता है वह तो उसी स्वरूप के भावो का प्रत्यक्ष प्रतिरूप है. जब इस बाहरी रुप को उस आंतरिक स्वरुप से जोड़ देंगे तो हमें इस संसार से कोई विशेष लालच ,मोह या जुड़ाव नहीं रहेगा. इसीलिए “मै ” और “सत्ता” सुख से सोएँगे।

भूल जाता हूँ

भूल जाता हूँ भटक जाता हूँ , शायद बेहोशी के आलं में भी खो जाता हूँ,अपनी ही चुनी हुई राहों से फिर ठोकर खाकर होश में आता हूँ संभाल जाता हूँ चलना,दौड़ना,फिर से सिख जल्द वापस आ जाता हूँ फिर अपनी पसंदीदा राहों पर

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